बिहार विधानसभा चुनाव का मतदान खत्म होने और एक्जिट पोल के नतीजे आने के बाद पूरे बिहार में लालू के पलटूराम नीतीश कुमार को लेकर चर्चा काफी तेज हो गई है क्या एक्जिट पोल के नतीजे आने पर पलटूराम की राजनीति की चुनौती वास्तव में बढ़ जाने वाली है?
फिलहाल भाजपा और संघ से जुड़े नेता एक्जिट पोल पर अभी चिर-परिचित शैली में कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं। जद(यू) के दिल्ली से लेकर पटना में बैठे तमाम नेताओं को बड़ी बेसब्री से 10 नवंबर का इंतजार है। पूर्व राज्यसभा सांसद पवन वर्मा और चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की निगाहें भी 10 नवंबर के नतीजे पर टिक गई है।
राजेश सिंह बिहार में भाजपा के कार्यकर्ता हैं। वह कहते हैं कि नीतीश ने पहले लालू प्रसाद और बाद में जॉर्ज फर्नांडीज, फिर लालू प्रसाद यादव और शरद यादव के साथ जो किया है, उसका नतीजा सामने है। बिहार में जद(यू) के लिए काम करने वाले रीतेश रंजन को भी लग रहा है कि 10 नवंबर के नतीजे बहुत अच्छे नहीं आएंगे।
हालांकि रीतेश का यह भी कहना है कि एक्जिट पोल के नतीजे सही साबित होने के बाद तेजस्वी यादव भले मुख्यमंत्री बन जाएं, लेकिन उनकी सरकार जल्द ही अपना इकबाल खोते देखेगी। तेजस्वी लालू राज की छाप, अपने ऊपर पड़ रही लॉयबिलिटी, अनुभवहीनता से नहीं निबट पाएंगे। इसके समानांतर लोगों की तेजस्वी से अपेक्षा काफी अधिक रहेगी।
वह प्रयागराज में भाजपा और संघ के कार्यकर्ता हैं और बनारस काशी प्रांत से जुड़े हैं। बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचार करके लौटे हैं। उनका कहना है कि अभी एक्जिट पोल या चुनाव बाद नतीजा चाहे जो आए, बिहार में देर-सबेर भाजपा की ही सरकार बननी है।
सूत्र का कहना है कि भाजपा अब वहां प्रभावी रूप में उभरने की जमीन तैयार कर चुकी है। यह पूछे जाने पर कि क्या नीतीश कुमार के साथ पलटूराम जैसा कुछ हुआ है? सूत्र का कहना है कि राजनीति में राजनीति ही होती है। कभी कुछ एकतरफा नहीं होता। फिलहाल नतीजा चाहे जो आए नीतीश कुमार और पार्टी जद(यू) एनडीए का एक महत्वपूर्ण अंग है।
नीतीश कुमार 90 के दशक में बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की आंख के तारे थे। बताते हैं लालू के बिहार में यादव राज का वर्चस्व कायम करने की कोशिश कुर्मी समाज के नीतीश की आंख में खटकने लगी। एक दिन नीतीश ने लालू प्रसाद का साथ छोड़ दिया। वह विरोधी खेमे में जाकर बागी हो गए।
बाद में नीतीश कुमार ने बिहार में लालू राज (जिसे वह जंगल राज कहते हैं) के खात्मे को अपना मुख्य एजेंडा बना लिया। इस मिशन को पूरा करने के लिए नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडीज की समता पार्टी का विलय शरद यादव की जद(यू) में कराया। समय के साथ आगे बढ़ते हुए नीतीश ने बीमारी से जूझ रहे जॉर्ज से किनारा करना शुरू किया।
बिहार की राजनीति को समझने वालों का कहना है कि नीतीश 2000 में बिहार में अल्पमत के कारण सरकार नहीं बना पाए, लेकिन 2005 में उनका यह सपना पूरा हो गया। तब से राज्य की राजनीति में उनका दबदबा है। घटनाक्रम पर गौर करें तो कभी बिहार की राजनीति और चुनाव प्रचार में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रवेश रोकने के लिए अड़ने वाले नीतीश कुमार ने 2013 में मोदी को चुनाव प्रचार अभियान का प्रधानमंत्री बनाए जाने पर एनडीए से नाता तोड़ लिया था।
2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के बुरी तरह असफल रहने की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश कुमार ने बिना अपने नेताओं की सलाह को गंभीरता से लिए इस्तीफा दे दिया। जीतनराम मांझी को उत्तराधिकारी चुनकर महादलित का कार्ड खेलते हुए मुख्यमंत्री बनवाया और कुछ ही महीने बाद माझी को सत्ता से बेदखल करके खुद फिर मुख्यमंत्री बन गए।
2015 में बिहार विधानसभा चुनाव की चुनौती काफी बड़ी थी। नीतीश कुमार को इसका अंदाजा था। चुनाव से पहले चुनाव प्रचार अभियान के रणनीतिकार प्रशांत किशोर उनकी आंख के तारे बन गए। जद(यू) के अध्यक्ष शरद यादव के सहारे नीतीश एक बार फिर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के गले मिल गए।
2015 के चुनाव में महागठबंधन बना और पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आया। सरकार बनी। नीतीश मुख्यमंत्री और तेजस्वी यादव डिप्टी सीएम बने, लेकिन कुछ महीने तक सरकार के चलने के बाद नीतीश कुमार ने अचानक फिर यू-टर्न ले लिया। बार-बार के इस यू टर्न लेने पर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने नीतीश कुमार को पलटूराम कहकर ताना मारा।
बिहार विधानसभा चुनाव में एक्जिट पोल के नतीजे के आधार पर नीतीश कुमार की पार्टी जद(यू) के 30-45 सीट तक सिमट जाने पर उन्हें बड़ा झटका लग सकता है। भाजपा के मध्यप्रदेश से एक पूर्व राज्यसभा सांसद और नेता का मानना है कि ऐसा हुआ तो पहला बड़ा झटका उनके अहंकार को लग सकता है।
हालांकि सूत्र का कहना है कि एक्जिट पोल के नतीजे सही होने की कोई गारंटी नहीं है। कई बार चुनाव परिणाम इसके बिल्कुल उलट आ जाते हैं। लेकिन इतना तय है कि यदि इसी तरह के नतीजे आए तो बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी भाजपा का बड़ा भाई होने का रुतबा खो देगी। इसके बाद आगे की राजनीतिक यात्रा में नीतीश कुमार को भाजपा का छोटा भाई बनकर रहना पड़ेगा। देखना होगा कि नीतीश कुमार ऐसी स्थिति में खुद को कैसे संभाल पाते हैं।
सार
- शरद यादव, लालू और चिराग को एक्जिट पोल के नतीजे दे रहे हैं सुकून
- कई को छकाने वाले नीतीश कुमार खुद हो गए इसी खेल का शिकार
- पहले जॉर्ज, फिर लालू और शरद का छोड़ा साथ
विस्तार
बिहार विधानसभा चुनाव का मतदान खत्म होने और एक्जिट पोल के नतीजे आने के बाद पूरे बिहार में लालू के पलटूराम नीतीश कुमार को लेकर चर्चा काफी तेज हो गई है क्या एक्जिट पोल के नतीजे आने पर पलटूराम की राजनीति की चुनौती वास्तव में बढ़ जाने वाली है?
फिलहाल भाजपा और संघ से जुड़े नेता एक्जिट पोल पर अभी चिर-परिचित शैली में कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं। जद(यू) के दिल्ली से लेकर पटना में बैठे तमाम नेताओं को बड़ी बेसब्री से 10 नवंबर का इंतजार है। पूर्व राज्यसभा सांसद पवन वर्मा और चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की निगाहें भी 10 नवंबर के नतीजे पर टिक गई है।
राजेश सिंह बिहार में भाजपा के कार्यकर्ता हैं। वह कहते हैं कि नीतीश ने पहले लालू प्रसाद और बाद में जॉर्ज फर्नांडीज, फिर लालू प्रसाद यादव और शरद यादव के साथ जो किया है, उसका नतीजा सामने है। बिहार में जद(यू) के लिए काम करने वाले रीतेश रंजन को भी लग रहा है कि 10 नवंबर के नतीजे बहुत अच्छे नहीं आएंगे।
हालांकि रीतेश का यह भी कहना है कि एक्जिट पोल के नतीजे सही साबित होने के बाद तेजस्वी यादव भले मुख्यमंत्री बन जाएं, लेकिन उनकी सरकार जल्द ही अपना इकबाल खोते देखेगी। तेजस्वी लालू राज की छाप, अपने ऊपर पड़ रही लॉयबिलिटी, अनुभवहीनता से नहीं निबट पाएंगे। इसके समानांतर लोगों की तेजस्वी से अपेक्षा काफी अधिक रहेगी।
देर-सबेर बिहार में भाजपा आनी है
वह प्रयागराज में भाजपा और संघ के कार्यकर्ता हैं और बनारस काशी प्रांत से जुड़े हैं। बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचार करके लौटे हैं। उनका कहना है कि अभी एक्जिट पोल या चुनाव बाद नतीजा चाहे जो आए, बिहार में देर-सबेर भाजपा की ही सरकार बननी है।
सूत्र का कहना है कि भाजपा अब वहां प्रभावी रूप में उभरने की जमीन तैयार कर चुकी है। यह पूछे जाने पर कि क्या नीतीश कुमार के साथ पलटूराम जैसा कुछ हुआ है? सूत्र का कहना है कि राजनीति में राजनीति ही होती है। कभी कुछ एकतरफा नहीं होता। फिलहाल नतीजा चाहे जो आए नीतीश कुमार और पार्टी जद(यू) एनडीए का एक महत्वपूर्ण अंग है।
लालू ने नीतीश कुमार को क्यों दिया पलटूराम का नाम?
नीतीश कुमार 90 के दशक में बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की आंख के तारे थे। बताते हैं लालू के बिहार में यादव राज का वर्चस्व कायम करने की कोशिश कुर्मी समाज के नीतीश की आंख में खटकने लगी। एक दिन नीतीश ने लालू प्रसाद का साथ छोड़ दिया। वह विरोधी खेमे में जाकर बागी हो गए।
बाद में नीतीश कुमार ने बिहार में लालू राज (जिसे वह जंगल राज कहते हैं) के खात्मे को अपना मुख्य एजेंडा बना लिया। इस मिशन को पूरा करने के लिए नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडीज की समता पार्टी का विलय शरद यादव की जद(यू) में कराया। समय के साथ आगे बढ़ते हुए नीतीश ने बीमारी से जूझ रहे जॉर्ज से किनारा करना शुरू किया।
बिहार की राजनीति को समझने वालों का कहना है कि नीतीश 2000 में बिहार में अल्पमत के कारण सरकार नहीं बना पाए, लेकिन 2005 में उनका यह सपना पूरा हो गया। तब से राज्य की राजनीति में उनका दबदबा है। घटनाक्रम पर गौर करें तो कभी बिहार की राजनीति और चुनाव प्रचार में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रवेश रोकने के लिए अड़ने वाले नीतीश कुमार ने 2013 में मोदी को चुनाव प्रचार अभियान का प्रधानमंत्री बनाए जाने पर एनडीए से नाता तोड़ लिया था।
2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के बुरी तरह असफल रहने की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश कुमार ने बिना अपने नेताओं की सलाह को गंभीरता से लिए इस्तीफा दे दिया। जीतनराम मांझी को उत्तराधिकारी चुनकर महादलित का कार्ड खेलते हुए मुख्यमंत्री बनवाया और कुछ ही महीने बाद माझी को सत्ता से बेदखल करके खुद फिर मुख्यमंत्री बन गए।
2015 में बिहार विधानसभा चुनाव की चुनौती काफी बड़ी थी। नीतीश कुमार को इसका अंदाजा था। चुनाव से पहले चुनाव प्रचार अभियान के रणनीतिकार प्रशांत किशोर उनकी आंख के तारे बन गए। जद(यू) के अध्यक्ष शरद यादव के सहारे नीतीश एक बार फिर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के गले मिल गए।
2015 के चुनाव में महागठबंधन बना और पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आया। सरकार बनी। नीतीश मुख्यमंत्री और तेजस्वी यादव डिप्टी सीएम बने, लेकिन कुछ महीने तक सरकार के चलने के बाद नीतीश कुमार ने अचानक फिर यू-टर्न ले लिया। बार-बार के इस यू टर्न लेने पर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने नीतीश कुमार को पलटूराम कहकर ताना मारा।
क्या अब नीतीश की राजनीतिक साख लगेगी दांव पर?
बिहार विधानसभा चुनाव में एक्जिट पोल के नतीजे के आधार पर नीतीश कुमार की पार्टी जद(यू) के 30-45 सीट तक सिमट जाने पर उन्हें बड़ा झटका लग सकता है। भाजपा के मध्यप्रदेश से एक पूर्व राज्यसभा सांसद और नेता का मानना है कि ऐसा हुआ तो पहला बड़ा झटका उनके अहंकार को लग सकता है।
हालांकि सूत्र का कहना है कि एक्जिट पोल के नतीजे सही होने की कोई गारंटी नहीं है। कई बार चुनाव परिणाम इसके बिल्कुल उलट आ जाते हैं। लेकिन इतना तय है कि यदि इसी तरह के नतीजे आए तो बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी भाजपा का बड़ा भाई होने का रुतबा खो देगी। इसके बाद आगे की राजनीतिक यात्रा में नीतीश कुमार को भाजपा का छोटा भाई बनकर रहना पड़ेगा। देखना होगा कि नीतीश कुमार ऐसी स्थिति में खुद को कैसे संभाल पाते हैं।