inspiring story of aamir qutub, how the boy cleaning the airport formed a company with a turnover of Rs 10 crore | एयरपोर्ट पर सफाई करने वाले आमिर कुतुब ने कैसे बनाई 10 करोड़ के टर्नओवर वाली कंपनी

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नईदिल्ली31 मिनट पहलेलेखक: अक्षय बाजपेयी

अलीगढ़ जैसी छोटी सी जगह से निकलकर आमिर ऑस्ट्रेलिया पहुंचे। उन्हें ऑस्ट्रेलियन यंग बिजनेस लीडर ऑफ द ईयर का अवॉर्ड मिल चुका है।

  • अलीगढ़ के आमिर के पास पैसे नहीं थे तो वो एयरपोर्ट पर सफाई करते थे, कुछ वक्त पैसों के लिए अखबार भी बांटे

आमिर कुतुब, अभी महज 31 साल के हैं और ऑस्ट्रेलिया बेस्ड एक मल्टीनेशनल डिजिटल फर्म के मालिक हैं, जिसका टर्नओवर दस करोड़ है। चार देशों में आमिर की कंपनी की मौजूदगी है। आमिर कभी एयरपोर्ट पर सफाई का काम किया करते थे। घरों तक अखबार पहुंचाने का काम भी किया। लेकिन खुद का बिजनेस सेट करने का जुनून इस कदर उन पर छाया था कि कोई चुनौती उन्हें डिगा नहीं सकी। उन्होंने हमारे साथ अपनी सफलता की पूरी कहानी शेयर की है, पढ़िए उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।

कॉलेज में पढ़ाई में मन ही नहीं लग रहा था

मैं अलीगढ़ की एक मिडिल क्लास फैमिली से ताल्लुक रखता हूं। पिताजी सरकारी नौकरी में थे। मां हाउस वाइफ हैं। पिताजी की शुरू से ही ये ख्वाहिश थी कि बेटा बड़ा होकर डॉक्टर या इंजीनियर बने। इसलिए 12वीं के बाद मेरा एडमिशन बीटेक में करवाया गया। मेरे सब दोस्त मैकेनिकल ब्रांच ले रहे थे। सबने कहा, इसमें स्कोप अच्छा है तो मैंने भी मैकेनिकल ब्रांच ले ली।

मुझे पढ़ाई में ज्यादा इंटरेस्ट ही नहीं आ रहा था। मैं ये नहीं समझ पा रहा था कि जो मैं पढ़ रहा हूं, वो जिंदगी में कैसे काम आएगा। यही सोचकर मन में हताश हो जाता था। मन नहीं लगता था तो नंबर भी कम आते थे। एक बार तो टीचर ने बोल दिया था कि, तुम जिंदगी में कुछ कर नहीं पाओगे, क्योंकि तुम्हारा पढ़ाई में मन ही नहीं लगता।

आमिर कहते हैं, कॉलेज में मेरे सारे दोस्त मैकेनिकल ब्रांच ले रहे थे, इसलिए मैंने भी ले ली। उस समय मुझे ये नहीं पता था कि, मेरी रुचि टेक्नोलॉजी में है।

आमिर कहते हैं, कॉलेज में मेरे सारे दोस्त मैकेनिकल ब्रांच ले रहे थे, इसलिए मैंने भी ले ली। उस समय मुझे ये नहीं पता था कि, मेरी रुचि टेक्नोलॉजी में है।

पढ़ाई में मन नहीं लगा तो एक्स्ट्रा-करिकुलर एक्टिविटीज में लग गए

जब सेकंड ईयर में आया तो मैंने एक्स्ट्रा-करिकुलर एक्टिविटीज में पार्टिसिपेट करना शुरू कर दिया। कॉलेज फेस्ट हुआ तो उसमें पार्टिसिपेट किया और मुझे अवॉर्ड भी मिला। पढ़ाई के अलावा जो-जो हो सकता था वो मैं सब कर रहा था। सेकंड ईयर में ही मन में ख्याल आया कि यूनिवर्सिटी में कोई सोशल नेटवर्क नहीं है तो क्यों न कोई सोशल नेटवर्किंग ऐप बनाया जाए।

दोस्तों ने मजाक उड़ाया। बोले कि, भाई तू मैकेनिकल ब्रांच से है और बात कर रहा है ऐप बनाने की। तुझे कोडिंग भी नहीं आती। कैसे बनाएगा ऐप। ये वो टाइम था जब फेसबुक भी नया था। मैंने गूगल से कोडिंग सीखनी शुरू कर दी। चार महीने तक ऐप बनाने जितनी जरूरी कोडिंग मुझे आने लगी थी।

फिर अपने एक दोस्त के साथ मिलकर हमने सोशल नेटवर्किंग ऐप बनाई और उसे लॉन्च कर दिया। हफ्तेभर में ही दस हजार स्टूडेंट्स ने उसे ज्वॉइन कर लिया। उसमें सब एक-दूसरे से बात कर सकते थे। फोटो शेयर कर सकते थे। वो प्रोजेक्ट काफी सक्सेस रहा।

कॉलेज में मैग्जीन नहीं थी तो सोचा कि मैगजीन शुरू करना चाहिए। मैंने स्पॉन्सर ढूंढ़ना शुरू कर दिए। लोगों से मिला तो उन्होंने कहा कि स्पॉन्सरशिप ऐसे नहीं मिलती। आपको प्रपोजल बनाकर लाना पड़ेगा। फिर बात हो पाएगी। फिर गूगल पर ही प्रपोजल बनाना सीखा और दोबारा उन लोगों से मिला।

फाइनली एक स्पॉन्सर मैगजीन के लिए मिल गया। कॉलेज में इलेक्शन हुए तो सेक्रेटरी की पोस्ट के लिए मैं खड़ा हुआ और जीता भी। जब सेक्रेटरी बना तो लीडरशिप स्किल्स सीखने को मिलीं। इस तरह से कॉलेज मेरे लिए ट्रेनिंग स्कूल की तरह हो गया था। मैगजीन के बहाने मार्केट को समझा।

इलेक्शन में पार्टिसिपेट करके लीडरशिप सीखी। इन सब चीजों से मेरा कॉन्फिडेंस बहुत ज्यादा बढ़ा। इसके बाद मैं यह डिसाइड कर चुका था मुझे अपना ही काम करना है और टेक्नोलॉजी से रिलेटेड ही कुछ करना है। लेकिन घरवाले पीछे पड़े थे कि जॉब करो। टीसीएस में मेरा प्लेसमेंट हो गया लेकिन मैंने वो जॉब ज्वॉइन नहीं की।

बाद में दिल्ली आया तो यहां होंडा में सिलेक्शन हो गया। जॉब मिल गई तो घरवाले भी खुश हो गए। होंडा में भी जब गया तो वहां मैंने सिस्टम सुधारने पर काम किया। जो मैन्युअल काम था, उसे बदलकर ऑनलाइन कर दिया। यह काम अपने ऑफिस वर्क के अलावा किया था।

जीएम काफी खुश हुए और होंडा ने मेरे सिस्टम को कई जगह अपनी कंपनियों में लागू कर दिया। यहां नौकरी चल रही थी लेकिन मैं खुश नहीं था क्योंकि मुझे तो अपना काम करना था। एक साल बाद मैंने रिजाइन कर दिया।

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बिजनेस की समझ नहीं थी, फ्रीलांसिंग करने लगा

मैंने सोचा कि अब खुद का काम करूंगा लेकिन मुझे बिजनेस की कोई समझ नहीं थी। मैंने फ्रीलांसिंग शुरू कर ली। वेबसाइट डिजाइन किया करता था। फ्रीलांसिंग के दौरान ही मुझे ऑस्ट्रेलिया, यूएस, यूके के क्लाइंट मिले। उन्हीं में से कुछ ने सलाह दी कि तुम विदेश जाकर अपना बिजनेस सेट क्यों नहीं कर रहे। मैंने ऑस्ट्रेलिया जाने का प्लान बनाया। वीजा का पता किया तो पता चला कि स्टूडेंट वीजा पर ही जा सकता हूं। फिर वहां के एक एमबीए कॉलेज में एडमिशन लिया। फर्स्ट सेमेस्टर के लिए कुछ स्कॉलरिशप मिल गई थी। कुछ पैसा घर से मिल गया था तो मैं ऑस्ट्रेलिया पहुंच गया।

वहां पहुंचने के बाद ये चैलेंज था कि दूसरे सेमेस्टर की फीस भी जोड़ना थी, पढ़ाई भी करना थी, जॉब भी करना थी और अपने बिजनेस को भी सेट करने के लिए शुरूआत करना थी। मुझे लग रहा था कि जॉब आसानी से मिल जाएगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मैंने करीब सौ से डेढ़ कंपनियों में अप्लाय किया लेकिन कहीं भी मेरा सिलेक्शन नहीं हो पाया क्योंकि वो लोग इंडिया के एक्सपीरियंस को मान नहीं रहे थे। करीब तीन महीने की कोशिशों के बाद एक एयरपोर्ट पर क्लीनिंग का काम मिला। वहां 20 डॉलर प्रतिघंटा मिला करता था। जॉब दिन की थी इसलिए मैं पढ़ाई नहीं कर पा रहा था और बिजनेस के बारे में भी कुछ सोच नहीं पा रहा था इसलिए मैंने रात की नौकरी ढ़ूंढ़ी। मुझे रात 3 बजे से सुबह 7 बजे तक घरों में अखबार डालने का काम मिला।

आमिर अब एक मल्टीनेशनल कंपनी के मालिक तो हैं ही साथ ही उन्होंने कई स्टार्टअप्स में भी इंवेस्ट किया है। चार देशों में उनकी कंपनी के ऑफिस हैं।

आमिर अब एक मल्टीनेशनल कंपनी के मालिक तो हैं ही साथ ही उन्होंने कई स्टार्टअप्स में भी इंवेस्ट किया है। चार देशों में उनकी कंपनी के ऑफिस हैं।

रिश्तेदार बोलते थे, पढ़-लिख कर ये क्या कर रहा है

ये सब घर में पता चला तो वो बहुत गुस्सा हुए। सबने इंडिया आने का भी कहा। कुछ रिश्तेदारों ने बोला कि, पढ़-लिख कर ये काम कर रहा है लेकिन मेरा विजन एकदम क्लियर था। मुझे मेरा लक्ष्य पता था। ये सब करते हुए एक साल निकल गया। फिर मुझे जुगाड़ से एक छोटा गेराज मिल गया। वहां से मैं अपनी कंपनी का थोड़ा बहुत काम करने लगा। लोगों को बताने लगा कि मेरी कंपनी है। मैं वेबसाइट डिजाइनिंग का काम करता हूं। मैंने कंपनी रजिस्टर्ड करवा ली थी।

अब मुश्किल ये थी कि कंपनी तो बन गई थी लेकिन क्लाइंट नहीं मिल पा रहे थे। मैं अपना कार्ड लेकर इधर-उधर घूमता था लेकिन कोई काम ही नहीं करवाता था। एक दिन बस में एक बंदा मिला उसका छोटा बिजनेस था। उसे मैंने अपने बारे में बताया तो उसने कहा कि, तुम चाहो तो मेरी कंपनी के लिए सिस्टम बना सकते हो लेकिन मैं इसका कोई चार्ज नहीं दूंगा। मैंने चार हफ्ते में उसकी कंपनी के लिए ऐसा सिस्टम बनाया जिससे उसके महीने के 5 हजार डॉलर बचने लगे। फिर उसने न सिर्फ मुझे पे किया बल्कि दूसरे लोगों से भी कनेक्ट करवाया।

50 लाख का लोन हो गया था

फिर मुझे ऑस्ट्रेलिया में ही एक सेमी गवर्नमेंट ओर्गनाइजेशन ज्वॉइन करने का मौका मिला। वहां डेढ़ साल काम इतना अच्छा रहा कि मैं जीएम की पोस्ट तक पहुंच गया। जब पैसा जुड़ गया तो मैंने वो कंपनी भी छोड़ दी क्योंकि मुझे तो अपना काम सेट करना था। फिर मैंने इंडिया में चार बंद रखे और ऑस्ट्रेलिया से काम लेकर उनसे करवाया करता था। धीरे धीरे काम बढ़ने लगा लेकिन खर्चा भी बढ़ते जा रहा था। मैंने खर्चे से निपटने के लिए लोन लिया लेकिन लोन बढ़ते ही चले गए और 50 लाख रुपए का कर्जा मेरे ऊपर हो गया।

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि कंपनी में पैसा आ रहा है फिर भी बचत क्यों नहीं हो पा रही। कई लोगों से मिला। कुछ को मेंटर बनाया। कस्टमर्स से पूछा कि, मैं और क्या कर सकता हूं। एनालिसिस करने पर पता चला कि कुछ सर्विसेज का चार्ज मैं बहुत कम ले रहा हूं। कुछ क्लाइंट ऐसे भी थे जो काम करवा रहे थे लेकिन पेमेंट बहुत देरी से करते थे। मैंने चार्जेस बढ़ाए और ऐसे क्लाइंट का काम बंद कर दिया जो पेमेंट नहीं कर रहे थे। मैं सिर्फ 20 परसेंट क्लाइंट के साथ काम कर रहा था। फिर मुझे जो ग्रोथ मिली उससे मैंने डेढ़ साल में ही लोन खत्म कर दिया। आज मेरी कंपनी का दस करोड़ रुपए का टर्नओवर है। हम चार देशों में हैं। स्टार्टअप्स में भी मैंने इन्वेस्टमेंट कर रखा है। मेरे पास 100 इम्प्लॉइज परमानेंट हैं और करीब 300 कॉन्ट्रेक्टर्स हैं।

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