Ex IAS Yogendra Narain Interview: ब्यूरोक्रेसी से राजनीति में उतरते नौकरशाह, यूपी के पूर्व मुख्य सचिव ने कहा- बीजेपी ने मुझे भी दिया था ऑफर – ex ias yogendra narain claims bjp offered him ticket from lucknow
वैसे तो ब्यूरोक्रेट्स का राजनीति में आना कोई नई बात नहीं है लेकिन हाल के वर्षों में यह ट्रेंड बढ़ा है। मोदी कैबिनेट में ही पांच पूर्व ब्यूरोक्रेट्स मंत्री हैं। ताजा बहस इसलिए कि केंद्र में तैनात गुजरात काडर के आईएएस अरविंद कुमार शर्मा इसी महीने वीआरएस लेकर रातोंरात बीजेपी-यूपी में शामिल हो गए और पार्टी ने उन्हें तुरंत विधान परिषद भेज दिया। उधर बिहार में पूर्व ब्यूरोक्रेट आरसीपी सिंह जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए हैं।
ब्यूरोक्रेट्स के राजनीति की तरफ बढ़ते झुकाव की क्या वजह है और इसका क्या असर पड़ता है, यह जानने को एनबीटी के नैशनल पॉलिटिकल एडिटर नदीम ने बात की 1965 बैच के रिटायर्ड आईएएस ऑफिसर योगेंद्र नारायण से, जो केंद्र और राज्य (यूपी) में बेहद अहम पदों पर रहे और बाद में राज्यसभा के सेक्रेटरी जनरल भी हुए। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश:
ब्यूरोक्रेट्स की राजनीति में जो एंट्री होती है, उसे आप कैसे देखते हैं?
मुझे उसमें कोई बुराई नहीं दिखती है। वे जब राजनीति में एंट्री कर किसी सरकार का हिस्सा बनते हैं तो उनके प्रशासनिक अनुभव का लाभ सरकारों को मिलता है और उसके बेहतर नतीजे देखने को मिलते हैं।
हाल के वर्षों में राजनीति में ब्यूरोक्रेट्स की एंट्री का ट्रेंड बढ़ा है। क्या राजनीति प्रशासनिक सेवा से कहीं ज्यादा आकर्षक हो गई है?
सरकारी सेवा की सीमाएं होती हैं। जब किसी ब्यूरोक्रेट को लगता है कि वह देश और समाज को अपने अनुभव से जिस रूप में लाभान्वित कर सकता है, सरकारी सेवा की सीमाओं के मद्देनजर नहीं कर पाया, तो वह राजनीति का रुख करता है। वहां पर खुलकर अपने विचारों को अभिव्यक्त करने या अपने अनुभवों को और विस्तार देने का अवसर मिलता है।
आप तो बहुत ही तजुर्बेकार ऑफिसर रहे हैं, फिर आपने राजनीति की तरफ रुख क्यों नहीं किया?
समाज की जो भी सेवा मुझसे बन पड़ी, वह मैंने अपने सेवाकाल में कर दी। मैं किसी एक पार्टी में शामिल होकर उसकी विचारधारा से बंधना नहीं चाहता। किसी पार्टी या किसी सरकार की जो पॉलिसी मुझे अच्छी लगती है, उसकी मैं तारीफ करता हूं, जो पसंद नहीं होती, उसके प्रति मैं अपनी असहमति जता देता हूं। पार्टी पॉलिटिक्स करने पर मेरी यह आजादी छिन जाती, इसलिए मैंने इससे अपने को दूर बनाए रखा है।
कभी किसी पार्टी ने आपको राजनीति में आने ऑफर दिया या नहीं?
हां, मिला था एक बार। 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस मुझे लखनऊ से चुनाव लड़वाना चाहती थीं, लेकिन मैंने मना कर दिया था।
पावर कॉरिडोर में आपने बहुत लंबा वक्त गुजारा है, आप बेहतर बता सकते हैं कि पॉलिटिक्स में जाने के लिए ब्यूरोक्रेट्स खुद कोशिश करते हैं या पार्टियों की तरफ से ऑफर आते हैं?
यह मौके की बात होती है। कभी किसी ब्यूरोक्रेट को लगता है कि अमुक पार्टी की नीतियां उसके विचारों से ज्यादा मेल खाती हैं, वह उस पार्टी में रहकर कहीं ज्यादा एक्सप्लोर कर सकता है, तो वह उसमें जाने के लिए पहल करता है। और कभी जब सरकार को लगता है कि अमुक ब्यूरोक्रेट किसी खास फील्ड का एक्सपर्ट है, उसे सरकार में शामिल करने से उसकी क्षमता का कहीं ज्यादा लाभ लिया जा सकता है तो सत्तारूढ़ पार्टी उसे पॉलिटिक्स में आने का ऑफर देती हैं।
जब किसी ब्यूरोक्रेट के मन में राजनीति में जाने की इच्छा जाग जाती होगी, तो वह जिस पार्टी में जाना चाहता होगा, उसके नेताओं से अपने रिश्ते बेहतर बनाने में जुट जाता होगा। ऐसे में उसकी निष्पक्षता प्रभावित नहीं होती होगी?
सर्विस में आने के तुंरत बाद किसी अफसर के मन में राजनीति में जाने की इच्छा नहीं होती। राजनीति में आने की इच्छा तभी जागती है, जब रिटायरमेंट करीब होता है। इस लिहाज से उसकी सर्विस का एक बड़ा हिस्सा किसी राजनीतिक पार्टी से प्रभावित नहीं होता है। रही बात अंतिम वर्षों की, अगर वह रूलिंग पार्टी में जा रहा है तो रूलिंग पार्टी की नीतियों को लागू करना तो हर एक ऑफिसर का कर्तव्य होता है।
केंद्रीय चुनाव आयोग का ब्यूरोक्रेट्स के लिए रिटायरमेंट के बाद कम से कम दो साल का ‘कूलिंग ऑफ’ पीरियड तय करने का सुझाव है, लेकिन अभी तक इस पर किसी भी सरकार ने गौर करना जरूरी नहीं समझा। आप आयोग के सुझाव से सहमत हैं?
मुझे भी आयोग का यह सुझाव पसंद है। अगर कहीं किसी को यह लगता है कि राजनीति में आने की इच्छा किसी ब्यूरोक्रेट के आचार-विचार-व्यवहार को प्रभावित कर सकती है, तो यह बंदिश लगा देनी चाहिए कि रिटायरमेंट या वीआरएस लेने के दो साल तक वह एक्टिव पॉलिटिक्स में नहीं कर पाएगा।
राज्यों में ब्यूरोक्रेसी पर कहीं ज्यादा पॉलिटिकल प्रेशर की बात कही जाती है। आपके जमाने में भी ऐसा होता था या नहीं?
भारत में प्रशासन दो स्तंभों के जरिए चलता है। एक स्तंभ के रूप में होते हैं प्रशासनिक अधिकारी, दूसरे के रूप में होते हैं जनप्रतिनिधि। जनप्रतिनिधि चुनावी फायदा पहुंचाने वाले अपने लोगों को ज्यादा से ज्यादा उपकृत करने की कोशिश में हरदम प्रेशर पॉलिटिक्स करते हैं। यह कोई नई बात नहीं है। लेकिन एक ब्यूरोक्रेट का जो सहारा होता है, वह है संविधान।
आप पर कभी कोई पॉलिटिकल प्रेशर पड़ा था?
जब मैं यूपी में तैनात था तो छह दिसंबर 92 के बाद एक सांस्कृतिक संस्था अयोध्या में एक नाट्य मंचन करना चाहती थी। मैंने अनुमति नहीं दी। यूपी में उस वक्त गवर्नर रूल था। गवर्नर साहब चाहते थे कि मैं अनुमति दे दूं, लेकिन मैंने नहीं दी थी।